ये कविता मैंने २०१२ में लिखी थी|
तुम्हे एक पताका दूंगा,
जिसपर लोकतंत्र लिखा होगा,
उसकी खुबशुरती के लिए एक डंडा भी दूंगा,
जिसपर लोकतंत्र लिखा पताका लहराएगा,
और लोकतंत्र की आवाज़ मजबूत करेगा,
ये झंडा तुम्हे रोटी, कपड़ा और मकान की याद दिलाएगा|
लेकिन जब तुम हुक्मरानों के सामने रोटी मांगने जाओगे,
उसी डंडे से तुम्हे पीटा जाएगा,
और तुम समझ पाओगे, लोकतंत्र क्या होता है|
फिर भी तुम यहाँ नहीं रुकोगे,
कहोगे लोकतंत्र ही है, जो हमें आवाज़ उठाने देता है,
खबरे सुनने देता है और हम नाच सकते हैं,
पर तुम्हे अब यह सोचना होगा कि
लोकतंत्र लिखा पताका चाहिए,
या रोटी, कपड़ा और मकान|
जगह-जगह सभाएं लगेगी,
लोग इकठ्ठा होंगे,
जिन्हें तुम लोकतंत्र के रक्षक कहते हो,
वो लोकतंत्र की कहानी कहेंगें,
और तुम सब कुछ न समझ के भी तालियाँ बजाओगे,
लोकतंत्र लिखा पताका फिर से लहरायेगा,
और तुम बिना रोटी के फिर विदा हो जाओगे|