धूल की तरह उठूँगी मैं?

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जब मै पहली बार आई थी,
उस वक़्त भी तुम सब घबराये थे।

धीरे-2 बड़ी होती गई,
तुम सब मुझे खुद से अलग होने का,
एहसास और गहरा करते गए।

वो अलग होना भी अजीब था,
दिखने मे अलग तो थी ही,
कभी-2 जब तुम्हारे खेतों से गुजरती,
तुम अनदेखी इतिहासों,
को ताजा कर देते।

तुमने न जाने मेरे जिंदा जी,
कितनी बार एहसास कराया,
मेरे तुमसे अलग होने का।

तुम बार-2,
दमन, शोषण, और अत्याचार की कहानी,
मुझ पर दोहराते रहे।

रास्ते चलते फब्तियाँ,
खेतो से चारा लाते,
दुपट्टों को खींचना,
वो गालियां,
जो कभी अपनी माँ को,
बता न सकी।

कहाँ जाती मै,
पुलिस तुम्हारी,
कोर्ट तुम्हारा,
हर जगह तुम्ही थे।

एक दिन,
खुद को रोक न सकी,
सोचा लड़ूँगी,
इस बार जान लगाकर,
तुम्हारी दमन और शोषण के खिलाफ।

अकेली थी,
तुम बहुत थे,
बचा न सकी,
खुद को।

मै सब देख रही हूँ,
तुम मेरे इस असमय मौत पर हंस रहे हो,
तुम्हारी सरकार और पुलिस,
सब अट्टहास कर रहे हैं।

मैं नहीं हूँ,
लेकिन मै उठूँगी धूल की तरह,
अपनी अधजली राख़ से,
जिसमे तुमने अपनी गुनाह को छिपाया है।

इस बार,
किसी की कमजोर बहन या बेटी नहीं,
बल्कि फूलन बनकर आऊँगी।

सब कुछ मै ही रहूँगी,
इस बार,
कोर्ट, वकील और पुलिस।

मेरी अधजली लाश की धूल से बचना,
मै उठूँगी इस बार,
तुम्हारे भय और आतंक की रात से,
सबको आजाद कराने।